Tuesday, 26 July 2011
Thursday, 21 July 2011
श्री गोस्वामी तुलसीदास

लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ |
धिक-धिक ऐसे प्रेम को कहाँ कहहुं मे नाथ | |
अस्थि चर्ममय देह मम, तामे ऐसी प्रीती |
तैसी जो श्रीराम मे, छेती न तो भव भीती |
तीर मर्म स्थल मे लगा गोस्वामी जी सांसारिक बंदन त्याद के श्री राम भक्ति के प्रशस्त्र मार्ग पर वेग से दौड़ चले १६३१ के मदु मास की रामनवमी को श्री रामचरित मानस की रचना आरम्भ की | इस महान काव्य की रचना मे २ वर्ष ७ महीने २६ दिन मे लिख कर समाप्त हुआ | उनके राम-मानवीय मर्यादाओ और आदर्शो के प्रतिक है | जिसके माध्यम से तुलसी ने नीति स्नेह शील विनय त्याग जैसी उदात आदर्शो को प्रतिशित किया रामचरित्र मानस उतरी भारत की जनता के बीच बहुत लोकप्रिय है | मानस के अलावा कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका आदि उनकी प्रमुख रचनाये है | अवधि और ब्रज दोनों भाषाओ पर उनका सामान अधिकार है | तुलसी ने रामचरित्र मानस की रचना अवधि मे और विनयपत्रिका तथा कवितावली की रचना ब्रज भाषा मे की | विनयपत्रिका की रचना गेय पदों मे हुई है कवितावली मे सवैया और कवित छेद की छटा देखी जा सकती है | गोस्वामी जी ने गृहस्त वेश त्यागकर साधु वेश धारण कर लिया | काशी में तुलसी दास जी एक स्थान पर नित्य कथा सुनने जाते थे, कथा समाप्त होने पर नगर से बहार शोच करते और लोटे का बचा हुआ जल एक पीपल की जड़ में छोड़ आते | उस वृक्ष पर एक प्रेत रहता था | नित्य प्रति अपवित्र जल मिलने से वह बड़ा सुखी होता था | एक दिन प्रसन्न होकर तुलसी दास जी से वर मांगने को को कहने लगा | तब तुलसी दास ने अपने मन की अभिलाषा, श्री राम चन्द्र जी के दर्शन की इच्छा उससे प्रकट की प्रेत ने यह सुनकर कहा की भगवान के दर्शन करवाने की सामर्थ्य तो मुझमें नही है, पर में तुम्हे उपाय बताता हूँ | जहाँ तुम रामायण की कथा सुनने जाते हो वहा नित्य प्रति मैले कुचले ब्रह्मण का वेश धर कर हनुमान जी आते है वे सबसे पहले आते है और सबसे पीछे जाते है वेही तुम्हे रघुनाथ जी के दर्शन करा सकते है | दुसरे दिन तुलसी दास ने हनुमान जी को पहचान कर एकांत पाकर उनके चरण पकड़ लिए और अनेक बार माना करने पर भी नहीं छोड़ा | तब हनुमान जी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और रघुनाथ जी के दर्शनों के लिए चित्रकूट चलने को कहा | मार्ग में उन्हें दो घुड़सवार अत्यंत मनोहर रूप वाले, श्याम गौर वर्ण, के किशोरे अवस्था वाले, धनुष बाण धारण किये हुए जाते मिले | तुलसी दास जी उन्हें देखकर मुग्ध हो गए किन्तु पहचान न सके | हनुमान जी द्वारा अपनी भूल ज्ञात होने पर वे बड़े पछताए | तब हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना दी की अभी रघुनाथ जी के दर्शन फिर होंगे |
सन १६०७ की मौनी अमावस्या बुधवार के दिन भागवान पुनः प्रकट हुए | तुलसी दास चित्रकूट पर चन्दन घिस रहे थे | तभी दो बालक आकार चन्दन मांगने लगे | तुलसी दास ने चन्दन दिया और उनके हाथ से अपने मस्तक पर चन्दन लगवाने लगे | हनुमान जी ये जान कर की ये दुबारा भी धोखा न खा जावे तोते का रूप धरकर ये दोहा पढ़ा |
चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर|
तुलसी दास चन्दन घिसे, तिलक देत रघुवीर ||
तब तुलसी दास को ध्यान आया उन्होंने भागवान की रूपमाधुरी को खूब छककर पिया| तत्पश्चात भागवान अंतर्ध्यान हो गए |
BAL KAND
* वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
भावार्थ:-अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥
* भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥
* वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
भावार्थ:-ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
* सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
भावार्थ:-श्री सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥4॥
* उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
भावार्थ:-उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥
* यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
भावार्थ:-जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूँ॥6॥
* नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
भावार्थ:-अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥
सोरठा :
* जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
भावार्थ:-जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥1॥
* मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥2॥
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥2॥
भावार्थ:-जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥
* नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
भावार्थ:-जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे भगवान् (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥3॥
* कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
भावार्थ:-जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥
* बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
भावार्थ:-मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
चौपाई :
* बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
भावार्थ:-मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
* सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
भावार्थ:-वह रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
* श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
* उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
भावार्थ:-उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥
दोहा :
* जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
भावार्थ:-जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥
चौपाई :
* गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
भावार्थ:-श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
* बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
भावार्थ:-पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
* साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
* मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
भावार्थ:-संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
* बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
भावार्थ:-विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥
* बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
भावार्थ:-(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
* अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
भावार्थ:-वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥
दोहा :
* सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
भावार्थ:-जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥
चौपाई :
* मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
भावार्थ:-इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥
* बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
भावार्थ:-वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥
* मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावार्थ:-उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
* बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥
* सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
भावार्थ:-दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
* बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
भावार्थ:-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
दोहा :
* बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
भावार्थ:-मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥
* संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
भावार्थ:-संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
* बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥
भावार्थ:-अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है॥1॥
* हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥
भावार्थ:-जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥2॥
*तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥
भावार्थ:-जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥3॥
* पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥
भावार्थ:-जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं॥4॥
* पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥
भावार्थ:-पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है (इन्द्र के लिए भी सुरानीक अर्थात् देवताओं की सेना हितकारी है)॥5॥
* बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥
भावार्थ:-जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं॥6॥
दोहा :
* उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
भावार्थ:-दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥4॥
चौपाई :
* मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥
भावार्थ:-मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?॥1॥
* बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
भावार्थ:-अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2॥
* उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
भावार्थ:-दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)॥3॥
*भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
भावार्थ:-भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात् कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥
दोहा :
* भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
भावार्थ:-भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥5॥
चौपाई :
* खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
भावार्थ:-दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥1॥
* भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
भावार्थ:-भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥
* दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
भावार्थ:-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥
दोहा :
* जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
चौपाई :
* अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
भावार्थ:-विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
* सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भावार्थ:-भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
* लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
भावार्थ:-जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं, अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥
* किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
भावार्थ:-बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान् और हनुमान्जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥
* गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
भावार्थ:-पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥
* धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
भावार्थ:-कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के संग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥
दोहा :
* ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
भावार्थ:-ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥7 (क)॥
* सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥
भावार्थ:-महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥7 (ख)॥
* जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
भावार्थ:-जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥7 (ग)॥
* देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)
भावार्थ:-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥7 (घ)॥
चौपाई :
* आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥
भावार्थ:-चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥1॥
Tuesday, 19 July 2011
सुन्दरकाण्ड / पञ्चम सोपान
| श्लोक | ||
| शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं | ||
| ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् । | ||
| रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं | ||
| वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।1।। | ||
| नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये | ||
| सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा। | ||
| भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे | ||
| कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।। | ||
| अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं | ||
| दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। | ||
| सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं | ||
| रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।। | ||
| जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।। | ||
| तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।। | ||
| जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।। | ||
| यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।। | ||
| सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।। | ||
| बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।। | ||
| जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता।। | ||
| जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।। | ||
| जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी।। | ||
| दो0- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। | ||
| राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।1।। | ||
| –*–*– | ||
| जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।। | ||
| सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।। | ||
| आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।। | ||
| राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।। | ||
| तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।। | ||
| कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।। | ||
| जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।। | ||
| सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।। | ||
| जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।। | ||
| सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।। | ||
| बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।। | ||
| मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा।। | ||
| दो0-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। | ||
| आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।। | ||
| –*–*– | ||
| निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।। | ||
| जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।। | ||
| गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।। | ||
| सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।। | ||
| ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।। | ||
| तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।। | ||
| नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।। | ||
| सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।। | ||
| उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।। | ||
| गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।। | ||
| अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा।। | ||
| छं=कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना। | ||
| चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।। | ||
| गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।। | ||
| बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।1।। | ||
| बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। | ||
| नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।। | ||
| कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। | ||
| नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।2।। | ||
| करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। | ||
| कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।। | ||
| एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। | ||
| रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।3।। | ||
| दो0-पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। | ||
| अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।। | ||
| –*–*– | ||
| मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।। | ||
| नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।। | ||
| जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।। | ||
| मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।। | ||
| पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।। | ||
| जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।। | ||
| बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।। | ||
| तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।। | ||
| दो0-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। | ||
| तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।। | ||
| –*–*– | ||
| प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।। | ||
| गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।। | ||
| गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।। | ||
| अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना।। | ||
| मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।। | ||
| गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।। | ||
| सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।। | ||
| भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।। | ||
| दो0-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। | ||
| नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।5।। | ||
| –*–*– | ||
| लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।। | ||
| मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।। | ||
| राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।। | ||
| एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।। | ||
| बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।। | ||
| करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।। | ||
| की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।। | ||
| की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।। | ||
| दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम। | ||
| सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।। | ||
| –*–*– | ||
| सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।। | ||
| तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।। | ||
| तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।। | ||
| अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।। | ||
| जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।। | ||
| सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।। | ||
| कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।। | ||
| प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।। | ||
| दो0-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। | ||
| कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।। | ||
| –*–*– | ||
| जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।। | ||
| एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।। | ||
| पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।। | ||
| तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता।। | ||
| जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।। | ||
| करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ।। | ||
| देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।। | ||
| कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।। | ||
| दो0-निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन। | ||
| परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।। | ||
| –*–*– | ||
| तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।। | ||
| तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा।। | ||
| बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।। | ||
| कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।। | ||
| तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।। | ||
| तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।। | ||
| सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।। | ||
| अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।। | ||
| सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।। | ||
| दो0- आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। | ||
| परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।9।। | ||
| –*–*– | ||
| सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।। | ||
| नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी।। | ||
| स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।। | ||
| सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।। | ||
| चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।। | ||
| सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा।। | ||
| सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।। | ||
| कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।। | ||
| मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।। | ||
| दो0-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद। | ||
| सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद।।10।। | ||
| –*–*– | ||
| त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका।। | ||
| सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना।। | ||
| सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।। | ||
| खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।। | ||
| एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।। | ||
| नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई।। | ||
| यह सपना में कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।। | ||
| तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं।। | ||
| दो0-जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। | ||
| मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।11।। | ||
| –*–*– | ||
| त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।। | ||
| तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।। | ||
| आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।। | ||
| सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी।। | ||
| सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।। | ||
| निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी।। | ||
| कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।। | ||
| देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा।। | ||
| पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी।। | ||
| सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका।। | ||
| नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना।। | ||
| देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता।। | ||
| सो0-कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब। | ||
| जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ।।12।। | ||
| तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।। | ||
| चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।। | ||
| जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।। | ||
| सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।। | ||
| रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।। | ||
| लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई।। | ||
| श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई।। | ||
| तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ।। | ||
| राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।। | ||
| यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।। | ||
| नर बानरहि संग कहु कैसें। कहि कथा भइ संगति जैसें।। | ||
| दो0-कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।। | ||
| जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।13।। | ||
| –*–*– | ||
| हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।। | ||
| बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना।। | ||
| अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी।। | ||
| कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई।। | ||
| सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक।। | ||
| कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता।। | ||
| बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।। | ||
| देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता।। | ||
| मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।। | ||
| जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।। | ||
| दो0-रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर। | ||
| अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर।।14।। | ||
| –*–*– | ||
| कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता।। | ||
| नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू।। | ||
| कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा।। | ||
| जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।। | ||
| कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।। | ||
| तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।। | ||
| सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।। | ||
| प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।। | ||
| कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। | ||
| उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।। | ||
| दो0-निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। | ||
| जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।। | ||
| –*–*– | ||
| जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई।। | ||
| रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की।। | ||
| अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।। | ||
| कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।। | ||
| निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।। | ||
| हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।। | ||
| मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।। | ||
| कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।। | ||
| सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।। | ||
| दो0-सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल। | ||
| प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।। | ||
| –*–*– | ||
| मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।। | ||
| आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।। | ||
| अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।। | ||
| करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।। | ||
| बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।। | ||
| अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।। | ||
| सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।। | ||
| सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।। | ||
| तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।। | ||
| दो0-देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। | ||
| रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।17।। | ||
| –*–*– | ||
| चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा।। | ||
| रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।। | ||
| नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी।। | ||
| खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।। | ||
| सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।। | ||
| सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे।। | ||
| पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।। | ||
| आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।। | ||
| दो0-कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। | ||
| कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।। | ||
| –*–*– | ||
| सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।। | ||
| मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।। | ||
| चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।। | ||
| कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा।। | ||
| अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।। | ||
| रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।। | ||
| तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा। | ||
| मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई।। | ||
| उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया।। | ||
| दो0-ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार। | ||
| जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।19।। | ||
| –*–*– | ||
| ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा।। | ||
| तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ।। | ||
| जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।। | ||
| तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।। | ||
| कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए।। | ||
| दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।। | ||
| कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।। | ||
| देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।। | ||
| दो0-कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद। | ||
| सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।20।। | ||
| –*–*– | ||
| कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहिं के बल घालेहि बन खीसा।। | ||
| की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही।। | ||
| मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।। | ||
| सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया।। | ||
| जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा। | ||
| जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन।। | ||
| धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता। | ||
| हर कोदंड कठिन जेहि भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा।। | ||
| खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली।। | ||
| दो0-जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि। | ||
| तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।21।। | ||
| –*–*– | ||
| जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।। | ||
| समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।। | ||
| खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।। | ||
| सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी।। | ||
| जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।। | ||
| मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।। | ||
| बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन।। | ||
| देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।। | ||
| जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।। | ||
| तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै।। | ||
| दो0-प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि। | ||
| गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।। | ||
| –*–*– | ||
| राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।। | ||
| रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।। | ||
| राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।। | ||
| बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषण भूषित बर नारी।। | ||
| राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।। | ||
| सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं।। | ||
| सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।। | ||
| संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही।। | ||
| दो0-मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान। | ||
| भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।। | ||
| –*–*– | ||
| जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।। | ||
| बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।। | ||
| मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।। | ||
| उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।। | ||
| सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।। | ||
| सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए। | ||
| नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता।। | ||
| आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई।। | ||
| सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर।। | ||
| दो-कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ। | ||
| तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।।24।। | ||
| पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।। | ||
| जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई। देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई।। | ||
| बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना।। | ||
| जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।। | ||
| रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।। | ||
| कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।। | ||
| बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।। | ||
| पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रुप तुरंता।। | ||
| निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भई सभीत निसाचर नारीं।। | ||
| दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास। | ||
| अट्टहास करि गर्जéा कपि बढ़ि लाग अकास।।25।। | ||
| –*–*– | ||
| देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।। | ||
| जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला।। | ||
| तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा।। | ||
| हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई।। | ||
| साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।। | ||
| जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं।। | ||
| ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।। | ||
| उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।। | ||
| दो0-पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि। | ||
| जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।26।। | ||
| –*–*– | ||
| मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।। | ||
| चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।। | ||
| कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।। | ||
| दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।। | ||
| तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।। | ||
| मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।। | ||
| कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना।। | ||
| तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।। | ||
| दो0-जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह। | ||
| चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।27।। | ||
| –*–*– | ||
| चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।। | ||
| नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा।। | ||
| हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।। | ||
| मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा।। | ||
| मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।। | ||
| चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा।। | ||
| तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।। | ||
| रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।। | ||
| दो0-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज। | ||
| सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।28।। | ||
| –*–*– | ||
| जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई।। | ||
| एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा।। | ||
| आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।। | ||
| पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।। | ||
| नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।। | ||
| सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ। | ||
| राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा।। | ||
| फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई।। | ||
| दो0-प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज। | ||
| पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।29।। | ||
| –*–*– | ||
| जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।। | ||
| ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।। | ||
| सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।। | ||
| प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।। | ||
| नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।। | ||
| पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।। | ||
| सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।। | ||
| कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।। | ||
| दो0-नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। | ||
| लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।30।। | ||
| –*–*– | ||
| चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।। | ||
| नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।। | ||
| अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना।। | ||
| मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।। | ||
| अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।। | ||
| नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा।। | ||
| बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।। | ||
| नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी। | ||
| सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।। | ||
| दो0-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति। | ||
| बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।31।। | ||
| –*–*– | ||
| सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।। | ||
| बचन काँय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।। | ||
| कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।। | ||
| केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी।। | ||
| सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।। | ||
| प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।। | ||
| सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।। | ||
| पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता।। | ||
| दो0-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत। | ||
| चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।32।। | ||
| –*–*– | ||
| बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।। | ||
| प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।। | ||
| सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर।। | ||
| कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा।। | ||
| कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।। | ||
| प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।। | ||
| साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।। | ||
| नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा। | ||
| सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।। | ||
| दो0- ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल। | ||
| तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।। | ||
| –*–*– | ||
| नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।। | ||
| सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी।। | ||
| उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।। | ||
| यह संवाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा।। | ||
| सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा।। | ||
| तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा।। | ||
| अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।। | ||
| कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी।। | ||
| दो0-कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ। | ||
| नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।34।। | ||
| –*–*– | ||
| प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गरजहिं भालु महाबल कीसा।। | ||
| देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना।। | ||
| राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।। | ||
| हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना।। | ||
| जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।। | ||
| प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं।। | ||
| जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई।। | ||
| चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहि बानर भालु अपारा।। | ||
| नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी।। | ||
| केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।। | ||
| छं0-चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे। | ||
| मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे।। | ||
| कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं। | ||
| जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं।।1।। | ||
| सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई। | ||
| गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई।। | ||
| रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी। | ||
| जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी।।2।। | ||
| दो0-एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर। | ||
| जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।। | ||
| –*–*– | ||
| उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब ते जारि गयउ कपि लंका।। | ||
| निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।। | ||
| जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई।। | ||
| दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी।। | ||
| रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।। | ||
| कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहु।। | ||
| समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी।। | ||
| तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।। | ||
| तब कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई।। | ||
| सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।। | ||
| दो0–राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक। | ||
| जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।36।। | ||
| –*–*– | ||
| श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।। | ||
| सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा।। | ||
| जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।। | ||
| कंपहिं लोकप जाकी त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा।। | ||
| अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।। | ||
| मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।। | ||
| बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।। | ||
| बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।। | ||
| जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माही।। | ||
| दो0-सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। | ||
| राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।। | ||
| –*–*– | ||
| सोइ रावन कहुँ बनि सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।। | ||
| अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।। | ||
| पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन।। | ||
| जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरुप कहउँ हित ताता।। | ||
| जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।। | ||
| सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाई।। | ||
| चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।। | ||
| गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।। | ||
| दो0- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ। | ||
| सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।38।। | ||
| –*–*– | ||
| तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।। | ||
| ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता।। | ||
| गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।। | ||
| जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।। | ||
| ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा।। | ||
| देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही।। | ||
| सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।। | ||
| जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन।। | ||
| दो0-बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस। | ||
| परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39(क)।। | ||
| मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात। | ||
| तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।39(ख)।। | ||
| –*–*– | ||
| माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना।। | ||
| तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।। | ||
| रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।। | ||
| माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।। | ||
| सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।। | ||
| जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।। | ||
| तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।। | ||
| कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।। | ||
| दो0-तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार। | ||
| सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।40।। | ||
| –*–*– | ||
| बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।। | ||
| सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मुत्यु अब आई।। | ||
| जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।। | ||
| कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाही।। | ||
| मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।। | ||
| अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा।। | ||
| उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।। | ||
| तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।। | ||
| सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ।। | ||
| दो0=रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। | ||
| मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।41।। | ||
| –*–*– | ||
| अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं।। | ||
| साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।। | ||
| रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।। | ||
| चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं।। | ||
| देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।। | ||
| जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी।। | ||
| जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए।। | ||
| हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई।। | ||
| दो0= जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ। | ||
| ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।42।। | ||
| –*–*– | ||
| एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।। | ||
| कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।। | ||
| ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए।। | ||
| कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई।। | ||
| कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।। | ||
| जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया।। | ||
| भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।। | ||
| सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी।। | ||
| सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।। | ||
| दो0=सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। | ||
| ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।43।। | ||
| –*–*– | ||
| कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।। | ||
| सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। | ||
| पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।। | ||
| जौं पै दुष्टहदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई।। | ||
| निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। | ||
| भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।। | ||
| जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।। | ||
| जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।। | ||
| दो0=उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत। | ||
| जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत।।44।। | ||
| –*–*– | ||
| सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर।। | ||
| दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता।। | ||
| बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।। | ||
| भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन।। | ||
| सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा।। | ||
| नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता।। | ||
| नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता।। | ||
| सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा।। | ||
| दो0-श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर। | ||
| त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।। | ||
| –*–*– | ||
| अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।। | ||
| दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।। | ||
| अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।। | ||
| कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।। | ||
| खल मंडलीं बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती।। | ||
| मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती।। | ||
| बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।। | ||
| अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया।। | ||
| दो0-तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम। | ||
| जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।। | ||
| –*–*– | ||
| तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।। | ||
| जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।। | ||
| ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।। | ||
| तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।। | ||
| अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।। | ||
| तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।। | ||
| मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।। | ||
| जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।। | ||
| दो0–अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज। | ||
| देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।47।। | ||
| –*–*– | ||
| सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।। | ||
| जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।। | ||
| तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।। | ||
| जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।। | ||
| सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।। | ||
| समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।। | ||
| अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।। | ||
| तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।। | ||
| दो0- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। | ||
| ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।। | ||
| –*–*– | ||
| सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।। | ||
| राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।। | ||
| सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी।। | ||
| पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।। | ||
| सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी।। | ||
| उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।। | ||
| अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।। | ||
| एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा।। | ||
| जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।। | ||
| अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।। | ||
| दो0-रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड। | ||
| जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।। | ||
| जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ। | ||
| सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।। | ||
| –*–*– | ||
| अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।। | ||
| निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।। | ||
| पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी।। | ||
| बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक।। | ||
| सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। | ||
| संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती।। | ||
| कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।। | ||
| जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई।। | ||
| दो0-प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि। | ||
| बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।50।। | ||
| –*–*– | ||
| सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।। | ||
| मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा।। | ||
| नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।। | ||
| कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।। | ||
| सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।। | ||
| अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई।। | ||
| प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।। | ||
| जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए।। | ||
| दो0-सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह। | ||
| प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।51।। | ||
| –*–*– | ||
| प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।। | ||
| रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने।। | ||
| कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर।। | ||
| सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए।। | ||
| बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।। | ||
| जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना।। | ||
| सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए।। | ||
| रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती।। | ||
| दो0-कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार। | ||
| सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार।।52।। | ||
| –*–*– | ||
| तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा।। | ||
| कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए।। | ||
| बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता।। | ||
| पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी।। | ||
| करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी।। | ||
| पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई।। | ||
| जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।। | ||
| कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।। | ||
| दो0–की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। | ||
| कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।53।। | ||
| –*–*– | ||
| नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।। | ||
| मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा।। | ||
| रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।। | ||
| श्रवन नासिका काटै लागे। राम सपथ दीन्हे हम त्यागे।। | ||
| पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई।। | ||
| नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी।। | ||
| जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।। | ||
| अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला।। | ||
| दो0-द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि। | ||
| दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।54।। | ||
| –*–*– | ||
| ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।। | ||
| राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रेलोकहि गनहीं।। | ||
| अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर।। | ||
| नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।। | ||
| परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा।। | ||
| सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला।। | ||
| मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।। | ||
| गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका।। | ||
| दो0–सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। | ||
| रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम।।55।। | ||
| –*–*– | ||
| राम तेज बल बुधि बिपुलाई। तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर।। | ||
| तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं।। | ||
| सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा।। | ||
| सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई।। | ||
| मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।। | ||
| सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।। | ||
| सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।। | ||
| रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।। | ||
| बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन।। | ||
| दो0–बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस। | ||
| राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।56(क)।। | ||
| की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग। | ||
| होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।56(ख)।। | ||
| –*–*– | ||
| सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।। | ||
| भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा।। | ||
| कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।। | ||
| सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा।। | ||
| अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।। | ||
| मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।। | ||
| जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे। | ||
| जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।। | ||
| नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।। | ||
| करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई।। | ||
| रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।। | ||
| बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।। | ||
| दो0-बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति। | ||
| बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।। | ||
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| लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।। | ||
| सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।। | ||
| ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।। | ||
| क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा।। | ||
| अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।। | ||
| संघानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।। | ||
| मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने।। | ||
| कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।। | ||
| दो0-काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। | ||
| बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।58।। | ||
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| सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।। | ||
| गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।। | ||
| तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।। | ||
| प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।। | ||
| प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।। | ||
| ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।। | ||
| प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।। | ||
| प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई।। | ||
| दो0-सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। | ||
| जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।। | ||
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| नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई।। | ||
| तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।। | ||
| मैं पुनि उर धरि प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई।। | ||
| एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।। | ||
| एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी।। | ||
| सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा।। | ||
| देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।। | ||
| सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा।। | ||
| छं0-निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ। | ||
| यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ।। | ||
| सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।। | ||
| तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना।। | ||
| दो0-सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। | ||
| सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।60।। | ||
| मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम | ||
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| इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने | ||
| पञ्चमः सोपानः समाप्तः । | ||
| (सुन्दरकाण्ड समाप्त) | ||
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